दिल्ली एजेंसी (प्रवीण जी): रकारी स्कूलों पर अंगुली उठाने वाले व्यक्ति कभी सोचे हैं कि सरकारी स्कूल में जाने वाले बच्चों के अभिभावक कभी बच्चे को स्कूल छोड़ने गए हों,कभी चिंता किये होंगे कि उनका बच्चा स्कूल जा भी रहा है या नहीं? कभी समय का ध्यान रहा हो कि बच्चा स्कूल लेट हो गया है? कभी चिंता करते हैं कि बच्चें के पास कलम, कॉपी,किताब है भी या नही? कभी चिंता करते हैं कि स्कूल का मिला गृह कार्य किया है या नही? कभी चिंता करते हैं कि आज बच्चा कुछ सीखा है या नहीं? कभी स्कूल में सिखाये गए कार्य को दोहरवाये हैं? जवाब होगा नहीं।लेकिन वहीं बच्चा जब प्राइवेट स्कूल में नामांकित होता है तो धारणायें बदल जाती है। बच्चें से पहले उठना,उसके नास्ते, बस्ता,की चिंता शुरू कर देते हैं। समय से स्कूल पहुचाते हैं भले वे स्वयं अपने कार्य को लेट हो जाये।स्कूल से आते ही गृह कार्य बनवाने और याद करवाने में लग जाते हैं।उनके एक एक छोटी चीज की चिंता होने लगती है। समाज को चिंतन करने की आवश्यकता है कि विद्यालय समाज के अंदर है या बाहर? विद्यालय से सिर्फ लाभ आधारित योजन की अपेक्षा रखने के जगह विद्यालय के विकास में भागीदार बनने की आवश्यकता है।तभी हम शिक्षा व्यवस्था में सुधार कर सकते हैं अन्यथा शिक्षा व्यवस्था में सुधार लाना समुद्र को सुखाने जैसा प्रतीत होगा…।।
चिंता किये होंगे कि उनका बच्चा स्कूल जा भी रहा है या नहीं?
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