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आलेख ———- ढोंगी नहीं ज्ञानी थे हमारे पूर्वज ************************ सामाजिक वैषम्य, जात-पात, ऊंच-नीच, छुआछूत की भावना से त्रस्त अक्खड़ और घुमक्कड़ कवि कबीर ने जब कहा होगा– “पाहन पूजे हरि मिले तो मैं पूजूं पहाड़ ताते ये चक्की भली,पीस खाय संसार”जानें

आलेख
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ढोंगी नहीं ज्ञानी थे हमारे पूर्वज
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सामाजिक वैषम्य, जात-पात, ऊंच-नीच, छुआछूत की भावना से त्रस्त अक्खड़ और घुमक्कड़ कवि कबीर ने जब कहा होगा–
“पाहन पूजे हरि मिले तो मैं पूजूं पहाड़
ताते ये चक्की भली,पीस खाय संसार”
तो उस वक्त तक,चाहे निम्न स्तर का ही सही, रहने को घर, पहनने को कपड़े और पीसने लायक़ अनाज निश्चय ही संत कबीर के पास भी रहा ही होगा। मगर कबीर साहेब ने तब यदि अतीत में झांका होता तो पाते कि हमारे पूर्वज (उनके भी) जब लगातार कंद-मूल- फल और शिकार की खोज में वन-प्रांतर में भटका करते थे तब आज की तरह मौसम के आकलन का उनके पास कोई साधन नहीं था न ही कोई मौसम विज्ञानी। दिन-रात,कभी भी, कहीं भी अनायास आई आंधी उन्हें उड़ा ले जाती थी, बाढ़ में पूरा कुनबा बह जाता था,लू से झुलस कर, ठंड से ठिठुर कर उनके प्राण निकल जाते थे। ऐसी प्राकृतिक आपदाओं से बचाने में वृक्ष भी उनकी कोई मदद नहीं कर पाते थे।उस संकटकाल में पहाड़ों की ओट, कंदराएं और गुफाएं ही उनकी शरणस्थली बनती थी। जाहिर है ऐसे आश्रयदाता के समक्ष आदि मानवों का मस्तक झुक जाता होगा और पहाड़ उनके लिए देवतुल्य लगते होंगे।
लेकिन हमारे पूर्वजों ने जिन पत्थरों को पूजा वो संत कबीर के ‘पाहन’ नहीं थे। सच्चाई ये है कि वे चट्टानों की पूजा नहीं करते थे,पूजा करते थे उन प्रस्तर-खंडों की जो पृथ्वी की आंतरिक या बाह्य शक्तियों के प्रभाव से, चट्टानों से विलग होकर पर्वतों की चोटी से लुढ़कते हुए, नदियों की प्रचंड धाराओं के साथ बहते हुए धरातल पर पहुंचते थे। जो चकनाचूर होकर मिट्टी में नहीं मिलते बल्कि धरातल तक पहुंचने के क्रम में इन पत्थरों की धार, पैनापन,नुकीलापन, तीक्ष्णता आघात- प्रतिघात सहकर नष्ट हो चुका होता था, रह जाता था एक सुंदर, गोल-मटोल,सुचिक्कन,मनमोहक आकार,जिसे सहज ही उठा कर किसी सुरक्षित स्थान पर सहेज देने की इच्छा प्रबल हो उठती होगी।इसे ही तो हमारे पूर्वजों ने “शालिग्राम” कहकर मंदिरों में स्थापित किया,पूजा। इंसान इस पत्थर की नहीं उस गूढ़ दर्शन की अराधना करता है जो पत्थर से शालिग्राम बनने की प्रक्रिया में समाहित है। भले ही वह पत्थर है मगर जिन राहों से गुजर कर,जिन आघातों को सहकर ,वह इस रुप को प्राप्त करता है वही इसे भगवान बना देता है। अर्थात् जो मुसीबतों, ठोकरों और विपरीत परिस्थितियों में भी अपने अस्तित्व की रक्षा कर लेता है वही पूजनीय है, वंदनीय है।यही तो है डार्विन का “survival of the fittest” (योग्यतम की उत्तरजीविता)।
पत्थरों को पूजने के पीछे एक गूढ़ दर्शन छिपा है। पूजनीय वही होता है जो तमाम मुश्किलों, विघ्न-बाधाओं, आपदाओं, विपदाओं में भी अपना अस्तित्व बनाए रखता है फिर चाहे वो चट्टानों से मैदानों तक पहुंचने वाले ‘शालिग्राम’ हों,छैनी -हथौड़ी का कठोर प्रहार झेलकर भी मंदिरों में स्थापित होने वाले हमारे देवी-देवता हों या अपनी आकांक्षा, इच्छा,लोभ,क्रोध, मोह, इंद्रियों को जीत लेने वाले मानव योनि में जन्मे हमारे संत-महात्मा हों।
–डाॅ.मंजुश्री वात्स्यायन
सहरसा

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